वृद्धि और विकास के सिद्धांतों का शैक्षिक महत्त्व Education Implications of the Principles of Growth and Development:

Table of Contents

1.व्यक्तिगत विभिन्नता का ज्ञान

इस से यह पता चलता है कि सभी बच्चों मे वृद्धि और विकास की गति और मात्रा एक जैसी नहीं होती । इस लिए बच्चों को पढ़ते समय व्यक्तिगत विभिन्नता (Individual difference) को ध्यान में रखकर शिक्षा को प्रस्तुत करना चाहिए ।

2.भविष्यवाणी करने में सहायक –

इस से बालकों में वृद्धि और विकास मे होने वाली प्रगति का पाता चलता है की आगे चलकर बालक किस प्रकार का विकास करेगा । अतः शिक्षा प्रस्तुत करते समय यह अवश्य ध्यान देना चाहिए की बालक आगे चलकर क्या बनेगा ।

3.सर्वांगीण विकास में उपयोगी – वृद्धि और विकास की सभी दिशाएं (Different aspects )

जो कि शारीरिक विकास, संवेगात्मक या समाजिक विकास,मानसिक विकास आदि सभी एक दूसरे के साथ परस्पर जुड़े हुए है । इन सभी के बारे में जानकर बालक के सर्वागीण विकास पर अच्छे से ध्यान दिया जा सकता है । अगर किसी एक पहलू पर ध्यान नही दिया जाए तो इस से किसी दूसरे पहलु में हो रही उन्नति में बाधा पहुँचती है । तो इस लिए बालक के सर्वागीण विकास पर ध्यान देना अति आवश्यक है । जो कि परस्पर संबंध के सिद्धांत द्वारा पूरा होता है ।

4.वंश तथा वातावरण के प्रभाव का ज्ञान –

बच्चे के वृद्धि और विकास के लिए वंशानुक्रम तथा वातावरण दोनों का बहुत महत्व है । इनमें से किसी की भी अपेक्षा नहीं की जानी चाहिए । इस प्रकार से इन तथ्यों को जान कर बालको में आवश्यक सुधार ला सकते हैं ताकि बच्चों का अधिकाधिक विकास हो सके ।

5.सामान्यता अथवा असामान्यता की मात्रा का ज्ञान –

वृद्धि और विकास सिद्धांतों को जान कर हमे यह पाता चलता है कि अगर किसी एक जाति के सदस्यों में वृद्धि तथा विकास सम्बन्धी एकरुपता देखी जा सकती है। इस प्रकार से  यदि वृद्धि और विकास की दर एक समान न हो तो यह जान कर बाल के वातावरण में परिवर्तन करके तथा उचित शिक्षण प्रदान कर के विकास में बढ़ोतरी की जा सकती है ।

6.माता – पिता और अध्यापकों में ज्ञान  –

माता – पिता और अध्यापकों को वृद्धि और विकास को ध्यान मे रखकर बालको मे होने वाले परिवर्तनों को ध्यान में रखा जा सकता है । अतः इसकी मदद  से आने वाली समस्याओं की समुचित तैयारी कर सकते हैं । यह सिद्धांत माता – पिता और आध्यपकों के लिए अत्यधिक उपयोगी है, क्योंकि यह उन्हे बतता है की विकास तथा वृद्धि के लिए कौन – सी तत्व सहायक है और कौन से तत्व नही है ।

7.शिक्षण को प्रभावशाली बनाने में सहायक –

वृद्धि और विकास के सिद्धांत शिक्षण प्रक्रिया में  प्रभावशाली बनाने में सहायक होता है । इस प्रणाली से शिक्षक बच्चों की व्यक्तिगत भिन्नता को अच्छे से समझ जाता है और उसके अनुसार बच्चों को एसी शिक्षण विधियों द्वारा पढ़ता है जिससे सभी बच्चे लाभान्वित हो पाएं ।

संक्षेप में हम कह सकते हैं कि वृद्धि और विकास संबंधी सिद्धान्त बालकों के संपूर्ण विकास में उचित दिशा प्रदान करते हैं जो कि उनके भावी विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं । अतः कहा जा सकता है कि एक सफल शिक्षक को वृद्धि तथा विकास के सिद्धांतों का समुचित ज्ञान होना चाहिए ।

वृद्धि और विकास के सिद्धांत

1.निरन्तराता का सिद्धांत (Principles of Continuous Development) –

शारीरिक और मानसिक विकास धीरे – धीरे और निरन्तर चलने वाली प्रक्रिया है। पर वृद्धि एक निश्चित अवस्था (आयु) तक होती है ।

2.जीवन के आरंभिक वर्षों में तीव्र गति –

जैसा की देख गया है, विकास लगातार होता रहता है , परन्तु वृद्धि की दर एक जैसी हमेशा नही रहती। शुरूआती तीन वर्षों में वृद्धि और विकास दोनों तीव्र गति से होते हैं । उसके बाद वर्षों मे वृद्धि की गति धीमी पड़ जाती है, परन्तु विकास की गति निरन्तर चलती रहती है ।

3.विकास साधारण से विशेष की ओर अग्रसर –

बच्चा आरंभ में साधारण बातें सीखता है, पर बाद में वह विशेष बातें सीखने लगता है । इसी प्रकार आरंभ में बालक आपने सम्पूर्ण अंग को और फिर बाद में भागों को चलाना सीखता है । अतः जब बालक के शरीक वृद्धि होती है तो वह विशेष प्रतिक्रियाएँ करना सीख जाता है । उदाहरण के तौर पर बालक पहले पूरे हाथ को, फिर उगलिंयो को एक साथ चलाना सीखता है ।

4.वैयक्तिक भिन्नताओ का सिद्धांत ( Principle of Individual difference ) –  

मनोवैज्ञानिक ने वैयक्तिक भिन्नताओ के सिद्धांत का व्यापक विश्लेषण किया गया परिणाम स्वरुप इस विश्लेषण मे पाया गया कि  विभिन-विभिन आयु वर्गो में बलकों के व्यवहारों में अन्तर पाया जाता हैं और यह भी देख गया जुड़ावा बच्चों में भी वैयक्तिक भिन्नताओ को देख गया । इस प्रकार  से कहा जा सकता है कि सभी बच्चों में वृद्धि तथा विकास में एकरूपता दिखाई नही देती ।

5.वंशानुक्रम और वातावरण के संयुक्त परिणाम का सिद्धांत –

देखा गया है वंशानुक्रम और वातावरण बालक के ऊपर अपना अत्यधिक प्रभाव देता हैं जो कि विकास और वृद्धि की प्रक्रिया को अत्यधिक प्रभावित करती है । इसमें से किसी की भी उपेक्षा नहीं की जानी चाहिए । इस प्रकार से हम बच्चे के वातावरण में आवश्यक सुधार कर के बालक के विकास करने की प्रक्रिया मे सुधार लाया  जा सकता है ।

6.परिपक्वता अधिगम का सिद्धांत (Principle of maturation and losing ) –

बालक के वृद्धि और विकास की प्रक्रिया में परिपक्वता का  विशेष महत्व होता है ।  जिस से परिपक्वता और वृद्धि और विकास दोनों प्रभावित होते हैं । देखा गया है बालक किसी भी कार्य को करने में परिपक्वता को ग्रहण कर लेता है इसी परिपक्वता के करण बालक अन्य कार्यो को आसानी से कर पता है।

7.एकीकरण का सिद्धांत (Principles of integration) –

इस सिद्धांत के अनुसार बच्चा पहले सम्पूर्ण अंग को, फिर बाद मे विशिष्ट भागों का प्रयोग कर पाता है या अंगों को चलान सीखता है , फिर उन भागो एकीकरण करना सीखता है । उदाहरण – देखा जाता है बच्चा पहले अपने पूरे हाथ को हिलाता डुलता है, फिर उसके बाद वह हाथ और उँगलियों को हिलाने का प्रयास करता है ।

8.विकास की भविष्यवाणी का सिद्धांत (Principal of development direction) –

अब तक के सिद्धांतों द्वारा यह पाता चलता है कि बालक की वृद्धि तथा विकास को ध्यान मे रखते हुए बालक के भविष्य की भविष्यवाणी की जा सकती है ।

9.विकास की दिशा का सिद्धांत (Principles of development direction ) –

इस सिद्धांत के अनुसार वृद्धि और विकास की दिशा निश्चित है जो पहले सिर से प्रौढ़ आकार और फिर टांगें सबसे बाद में विकसित होती है। आगे भ्रूण ( Embryo) के विकास में यह सिद्धांत बहुत स्पष्ट रूप से है ।

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